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जाने क्यूँ ये दर्द,मीठा-मीठा-सा लगता है



जाने क्यूँ ये दर्द, मीठा-मीठा -सा लगता है
हर ज़ख्म पर कोई, मिश्री घोल रहा हो जैसे
अपने ही आंसुओं पर, दरिया बन गई है ये आँखें
हर नज़र में कोई शख्स,शबनम टटोल रहा हो जैसे
अपनों का कारवां अपनी ही नब्ज़ में शूल सा लगता है
         कतरा कतरा यूँ घुट-घुटकर खुदी को ज़ार-ज़ार कर रहा हो जैसे
ऐ जहां वालों अब तो विराना ही अपना ताजमहल लगता है
                      शीशों के घरोंदो में दम साँसों का,बार-बार लुट रहा हो जैसे !


जाने क्यूँ ये दर्द,मीठा-मीठा-सा लगता है



जाने क्यूँ ये दर्द, मीठा-मीठा -सा लगता है
हर ज़ख्म पर कोई, मिश्री घोल रहा हो जैसे
अपने ही आंसुओं पर, दरिया बन गई है ये आँखें
हर नज़र में कोई शख्स,शबनम टटोल रहा हो जैसे
अपनों का कारवां अपनी ही नब्ज़ में शूल सा लगता है
         कतरा कतरा यूँ घुट-घुटकर खुदी को ज़ार-ज़ार कर रहा हो जैसे
ऐ जहां वालों अब तो विराना ही अपना ताजमहल लगता है
                      शीशों के घरोंदो में दम साँसों का,बार-बार लुट रहा हो जैसे !


जाने क्यूँ ये दर्द,मीठा-मीठा-सा लगता है



जाने क्यूँ ये दर्द, मीठा-मीठा -सा लगता है
हर ज़ख्म पर कोई, मिश्री घोल रहा हो जैसे
अपने ही आंसुओं पर, दरिया बन गई है ये आँखें
हर नज़र में कोई शख्स,शबनम टटोल रहा हो जैसे
अपनों का कारवां अपनी ही नब्ज़ में शूल सा लगता है
         कतरा कतरा यूँ घुट-घुटकर खुदी को ज़ार-ज़ार कर रहा हो जैसे
ऐ जहां वालों अब तो विराना ही अपना ताजमहल लगता है
                      शीशों के घरोंदो में दम साँसों का,बार-बार लुट रहा हो जैसे !


महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है


महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है
महज हाड़-मांस में ही कल-पुर्जों की हुई घिसाई है
बाखुदा मोहब्बत तो आज भी कतरे-कतरे में उफान पर है
इस नामुराद जमाने ने हम पे बुड़ापे की सिल लगाईं है
यूँ तो तज़ुर्बा जवानी का बेशुमार रहा इस ख़ादिम को
यूँ तो हुस्न की अनारकलियों ने दिलो-जान से चाहा इस सलीम को
लेकिन अब इन बदनों की हवस से दिलों की हुई रुसवाई है
हम अपने इश्क की मिसाल क्या दे तुमको ऐ जहां वालों
हम अपने हुनर को कैसे सोंप दे तुमको ऐ जहां वालों
डूबकर किया है इश्क ये मुलाक़ात उसी की सच्चाई है !

महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है


महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है
महज हाड़-मांस में ही कल-पुर्जों की हुई घिसाई है
बाखुदा मोहब्बत तो आज भी कतरे-कतरे में उफान पर है
इस नामुराद जमाने ने हम पे बुड़ापे की सिल लगाईं है
यूँ तो तज़ुर्बा जवानी का बेशुमार रहा इस ख़ादिम को
यूँ तो हुस्न की अनारकलियों ने दिलो-जान से चाहा इस सलीम को
लेकिन अब इन बदनों की हवस से दिलों की हुई रुसवाई है
हम अपने इश्क की मिसाल क्या दे तुमको ऐ जहां वालों
हम अपने हुनर को कैसे सोंप दे तुमको ऐ जहां वालों
डूबकर किया है इश्क ये मुलाक़ात उसी की सच्चाई है !

महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है


महज चेचिस पर ही झुर्रियों ने ली अंगड़ाई है
महज हाड़-मांस में ही कल-पुर्जों की हुई घिसाई है
बाखुदा मोहब्बत तो आज भी कतरे-कतरे में उफान पर है
इस नामुराद जमाने ने हम पे बुड़ापे की सिल लगाईं है
यूँ तो तज़ुर्बा जवानी का बेशुमार रहा इस ख़ादिम को
यूँ तो हुस्न की अनारकलियों ने दिलो-जान से चाहा इस सलीम को
लेकिन अब इन बदनों की हवस से दिलों की हुई रुसवाई है
हम अपने इश्क की मिसाल क्या दे तुमको ऐ जहां वालों
हम अपने हुनर को कैसे सोंप दे तुमको ऐ जहां वालों
डूबकर किया है इश्क ये मुलाक़ात उसी की सच्चाई है !